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राष्ट्रीय

महाराणा प्रताप का शौर्य सम्पूर्ण मानवता व धर्म को समर्पित था – राजा भैया

दिव्य अग्रवाल(राष्ट्रवादी लेखक व विचारक, गाजियाबाद)

सनातन धर्म की रक्षा हेतु अपना सर्वस्व बलिदान करने वाले वीर शिरोमणी परम् श्रधेय महाराणा प्रताप सिंह जी की प्रतिमा अनावरण महोत्सव का आयोजन बांसवाड़ा राजस्थान में दिनाँक 19 दिसम्बर 2021 को किया गया था । इस आयोजन में क्षत्रिय समाज के लगभग सभी गौत्र व जातियां सम्मलित थी । इस आयोजन में राजा रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया को बतौर मुख्य अतिथि आमन्त्रित किया गया था । राजा भैया ने अपने उद्बोधन में बहूत ही गूढ़ व तार्किक विषय रखे । राजा भैया के अनुशार महाराणा प्रताप सिंह जी की स्वीकार्यता मात्र किसी एक जाति या पंत की नही हो सकती अपितु महाराणा प्रताप का संघर्ष एवम बलिदान तो सम्पूर्ण सनातन धर्म व मानवता के संरक्षण हेतु समर्पित था । महाराजा छत्रपति शिवाजी महाराज व महाराणा प्रताप जैसे अनेकों योधायो का साथ ,रास्ट्र के उन सभी लोगो ने दिया था जो अपनी मात्र भूमि व माटी से स्नेह रखते थे । अतः ऐसे वीर योधायो को जातिगत सीमाओं में बांधा नही जा सकता । राजा भैया ने इतिहास का वर्णन करते हुए, दुःख भी प्रकट किया ओर कहा कि सम्पूर्ण मानवता को यह भी समझना होगा कि कुछ राजाओं ने स्वम् के निजी हित,लालच,कायरता व महत्वकांशाओ के कारण महाराणा प्रताप सिंह जी के विरुद्ध विदेशी आक्रांताओं का साथ दिया था । अतः वर्तमान व भविष्य में इस प्रकार की गलतियां दोहराई न जाए इसके लिए भी सनातन समाज को कार्य करना होगा । महाराणा प्रताप के संघर्ष व जीवन को अपनी लेखनी के माध्यम से जीवित रखने वाले लेखक पंडित श्याम नारायण पांडेय जी का भी वर्णन करते हुए उनकी कुछ पंक्तियों का गुणगान राजा भैया ने कुछ इस प्रकार किया ..

दो दिन पर मिलती रोटी
वह भी तृण की घासों की¸
कंकड़–पत्थर की शय्या¸
परवाह न आवासों की॥

लाशों पर लाशें देखीं¸
घायल कराहते देखे।
अपनी आँखों से अरि को
निज दुर्ग ढाहते देखे॥

तो भी उस वीर–व्रती का
था अचल हिमालय–सा मन।
पर हिम–सा पिघल गया वह
सुनकर कन्या का क्रन्दन॥

आँसू की पावन गंगा
आँखों से झर–झर निकली।
नयनों के पथ से पीड़ा
सरिता–सी बहकर निकली॥

भूखे–प्यासे–कुम्हालाये
शिशु को गोदी में लेकर।
पूछा¸ “तुम क्यों रोती हो
करूणा को करूणा देकर्”॥

अपनी तुतली भाषा में
वह सिसक–सिसककर बोली¸
जलती थी भूख तृषा की
उसके अन्तर में होली॥

‘हा छही न जाती मुझछे
अब आज भूख की ज्वाला।
कल छे ही प्याछ लगी है
हो लहा हिदय मतवाला॥

माँ ने घाछों की लोती
मुझको दी थी खाने को¸
छोते का पानी देकल
वह बोली भग जाने को॥

अम्मा छे दूल यहीं पल
छूकी लोती खाती थी।
जो पहले छुना चुकी हूँ¸
वह देछ–गीत गाती थी॥

छच कहती केवल मैंने
एकाध कवल खाया था।
तब तक बिलाव ले भागा
जो इछी लिए आया था॥

छुनती हूँ तू लाजा है
मैं प्याली छौनी तेली।
क्या दया न तुझको आती
यह दछा देखकल मेली॥

लोती थी तो देता था¸
खाने को मुझे मिठाई।
अब खाने को लोती तो
आती क्यों तुझे लुलाई॥

वह कौन छत्रु है जिछने
छेना का नाछ किया है?
तुझको¸ माँ को¸ हम छभको¸
जिछने बनबाछ दिया है॥

यक छोती छी पैनी छी
तलवाल मुझे भी दे दे।
मैं उछको माल भगाऊँ
छन मुझको लन कलने दे॥

कन्या की बातें सुनकर
रो पड़ी अचानक रानी।
राणा की आँखों से भी
अविरल बहता था पानी॥

उस निर्जन में बच्चों ने
माँ–माँ कह–कहकर रोया।
लघु–शिशु–विलाप सुन–सुनकर
धीरज ने धीरज खोया॥

वह स्वतन्त्रता कैसी है
वह कैसी है आजादी।
जिसके पद पर बच्चों ने
अपनी मुक्ता बिखरा दी॥

सहने की सीमा होती
सह सका न पीड़ा अन्तर।
हा¸ सiन्ध–पत्र लिखने को
वह बैठ गया आसन पर॥

कह ‘सावधान्’ रानी ने
राणा का थाम लिया कर।
बोली अधीर पति से वह
कागद मसिपात्र छिपाकर॥

“तू भारत का गौरव है¸
तू जननी–सेवा–रत है।
सच कोई मुझसे पूछे
तो तू ही तू भारत है॥

तू प्राण सनातन का है
मानवता का जीवन है।
तू सतियों का अंचल है
तू पावनता का धन है॥

यदि तू ही कायर बनकर
वैरी सiन्ध करेगा।
तो कौन भला भारत का
बोझा माथे पर लेगा॥

झाला सम्मुख मुसकाता
चेतक धिक्कार रहा है।
असि चाह रही कन्या भी
तू आँसू ढार रहा है॥

दिव्य अग्रवाल
दिव्य अग्रवाल(राष्ट्रवादी लेखक व विचारक )

राजा भैया ने इस कविता की विस्तृत व्याख्या कर ,संघर्ष व बलिदान की उस समय की वेदना एवम भविष्य के संकट की परिकल्पना करते हुए सम्पूर्ण हिन्दू समाज से आग्रह करते हुए कहा, जाती में बटकर नही अपितु संगठित होकर देश ,धर्म व मानवता की रक्षा मिलकर करनी होगी । इस धरती में धर्म योद्धाओं की न कभी कमी थी , न कमी है ओर ना ही कभी होगी परन्तु समाज को अपने वीर बलिदानी योधायो के जीवन व संघर्ष को अपने जीवन व अंतरात्मा मे समाहित कर अग्रिम पथ का निर्माण करना होगा ।

दिव्य अग्रवाल(राष्ट्रवादी लेखक व विचारक)

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