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एक रूपया व एक ईट

एक रूपया व एक ईट:- अग्र -वैश्य समाज की गौरव गाथा , भाग 9

 वैश्य जाति त्यागवादी है, भोगवादी नहीं

वैश्य समाज के लोग जीवन भर धन कमाते है और अपने शरीर पर गाढ़े का कुर्ता तथा मारकीन की धोती पहनकर पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं, लेकिन जब मरने का समय निकट आता है, तब कमाया हुआ सारा धन किसी स्कूल, कॉलिज या धर्मशाला के लिए दे जाते है। एक  उदाहरण देखिए

एक बार लाला लाजपत राय के कुछ व्यक्ति चंदा मांगने के लिए आये। लाला जो उस समय अपने नौकर को डाँट रहे थे कि तूने यह काँच के गिलासों का सेट गिरा कर मेरा दो आने का नुकसान कर दिया। जो सज्जन चन्दा माँगने आये थे में सोचने लगे कि कंजूस क्या देगा? यह दो आने के लिए अपने नौकर को कितना डांस रहा है? अगर यह देने वाला होता, तो नौकर को इतना नहीं डाँटता कुछ देर लाला जी ने उन लोगों से पूछा कि आप किस कारण मेरे पास आये अपने आने का प्रयोजन बताइये उन सज्जन व्यक्तियों ने बताया कि हम यहाँ पर एक कन्या इण्टर कालिज बनवाने के लिए आपसे कुछ मदद मांगन आये है। लाला जी ने चैक बुक निकाली और पचास हजार का बैंक काट कर उन्हें दे दिया। वे सज्जन आश्चर्य चकित रह गये। जो व्यक्ति दो के लिए नौकर को इतना डॉट रहा था, उसने पचास हजार रुपये दे दिया इस धनराशि में विद्यालय का पूरा भवन बनकर तैयार हो जायेगा। अतः हमे कहीं और जाना नहीं पड़ेगा। यह व्यक्ति तो बहुत ही महान है।

इसी प्रकार काँचला के रहने वाले चन्दन लाल जी। उन्होंने अपनी सारी जमीन-जायदाद, बाग-बगीचा एक इण्टर कालिज के निर्माण हेतु दे दिया था। उनके सुपुत्र श्री आनन्द प्रकाश अग्रवाल जी यूनियन बैंक के महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त हुए तथा मेरठ रत्न से विभूषित हु इन्होंने अपनी माताजी के नाम पर भी एक विद्यालय बनवाया है। इनका पूरा परिवार राष्ट्रवादी विचारों से ओतप्रोत है।

पूरे देश में स्कूल, कालिज, धर्मशाला वैश्य जाति की ही देन है। कितनी है यह वैस्य जाति। ये स्कूल, कालिन, धर्मशालाएं आज भी वैश्य जाति की गौरवमयी गाथा को गा रहे है तथा इनको यशकीर्ति को अक्षुण्य बनाये हुए है।

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