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एक रूपया व एक ईट

एक रूपया व एक ईट:- अग्र -वैश्य समाज की गौरव गाथा , भाग 14

वैश्य जाति का उद्भव

कहते हैं कि आवश्यकता अविष्कार की जननी है। सभ्यता के प्रारम्भिक काल में मानव कबीलों के रूप में रहते थे। वे कन्दमूल – खाते थें। फिर कबीलों ने जमीन को बाँटना प्रारम्भ किया तथा अपनी सीमाएं बाँटनी प्रारम्भ की। तब एक कबीले के लोग दूसरे कबीलों की सीमा में घुसकर उनके दुधारू पशुओं को बलात छीनने का प्रयास करने लगे। इससे उन कबीले के लोगों को अपनी रक्षा करने के लिए बलशाली पुरूषों का संगठन बनाना पड़ा जो हिंसक जानवरों से भी रक्षा करते थे। तथा बाह्य शत्रुओं से भी रक्षा करते थे। उसके बाद जब आबादी बढ़ी, तब कबीलों में कार्यों का वितरण करना पड़ा। इस प्रकार श्रम विभाजन से धीरे-धीरे अनेकानेक जातियों का निर्माण होने लगा। जाति निर्माण में मुख्यतया दो मान्यताएँ प्रचलित है प्रथम मान्यता है जिसमें अधिकतर विद्वानों ने यह माना है कि आर्य बाहर (मध्य एशिया) से भारत में आये। दूसरी मान्यता के अनुसार आर्य लोग भारत के ही मूल निवासी है। दोनों मान्यताओं के सम्बन्ध में विद्वानों ने अपने-अपने तर्क प्रस्तुत किये है। मै यहाँ पर दोनों मान्यताओं के सम्बन्ध में जातियों के उद्भव एवं वैश्य जाति के उद्भव पर प्रकाश डालना चाहता हूँ। यह आपके ऊपर निर्भर करता है कि आप कौन सी मान्यता को स्वीकार करते है। विद्वानों ने दोनों विषय में जो भी तर्क रखे हैं, उनका निरूपण भी हम करेगें। लेकिन सबसे पहले मै उस मान्यता पर प्रकाश डालूँगा जिसमें विद्वानों ने यह माना है कि आर्य लोग बाहर से आए थे।

पढ़ें :- शेष अगले अंक में

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