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एक रूपया व एक ईट

एक रूपया व एक ईट:- अग्र -वैश्य समाज की गौरव गाथा , भाग 17

पणियों का हास और भारत से बहिर्गमन

पणिपति का आर्यों के राजा इन्द्र से संघर्ष हुआ। इस युद्ध में आर्यों की जीत हुई। अतः पणियों को आर्यवर्त्त से खदेड़ दिया गया। डा० एस० सी० दास, ऋग्वैदिक इण्डिया शैड्यूल- 11 पृष्ठ 190 से 197 में लिखते है कि आर्यों से तिरस्कृत होने पर पणि लोग तीन भागों में बँट गये।

  1. कुछ पणि विदेश चले गये।
  2. कुछ पणि देश के दूसरे हिस्सों में चले गये।
  3. कुछ पणियों ने आर्यों से मित्रता कर ली।
  4. पणियों (वणिकों) का विदेशों में बहिर्गमन
(क) चीन में उपनिवेश

लाकू पेही पुरातत्व वैत्ता ने लिखा है कि ईसा से 700 वर्ष पूर्व भारतीय वणिक चीन में व्यापार करते थे तथा चीन में उन्होंने अपने उपनिवेश बना लिए थे।

प्रोफेसर फरमन डी लाकोपस ने अपनी पुस्तक वेस्टर्न ओरोजिन आफ दी अर्ली चाइनीज सिविलाइजेशन में बताया है कि चीन में 680 ईसा पूर्व भारतीय उपनिवेश बने थे, जिन्हें “निगंपर” कहते थें। वहाँ उनकी टकसाल भी थी। 631 ई0 पू0 में उलूवंशीय राजकुमार ने पूर्ण राजकीय सम्मान के साथ भारतीय वणिकों का स्वागत किया था। इन भारतीय वणिकों के उपनिवेश पर चीन के राजा का अधिकार नहीं था। न ही वाणिज्य के लिये, उस राज्य को कोई कर देते थे।

(ख) जावा, सुमात्रा और काम्बोज में उपनिवेश

ईसा से 431 वर्ष पूर्व एक चीन राजा ने भारतीय वणिकों के उपनिवेश ध्वस्त कर दिये। तब ये वणिक जावा, सुमात्रा और काम्बोज द्वीपों की और चले गये तथा वहाँ अपने उपनिवेश कायम किये।

 

(ग) शेष भूमण्डल का भ्रमण

ईसा से 500 वर्ष पूर्व हिरोडोटस नामक इतिहासकार ने पणियों (वणिकों) को संसार का आदि व्यापारी लिखा है। उसने आगे लिखा है कि यूनान में भी पणि लोग व्यापार हेतु जहाज ले गये थे।

लगभग 400 ई0 के आस पास एक चीनी यात्री फाहियान भारत आया। वह वणिकों के जहाज द्वारा सिंहल द्वीप (लंका) गया था। लंका से वह फिर जावा और बाली द्वीप गया। वहाँ पर उसने भारतीय वैश्यों (वणिकों) के उपनिवेशों को देखा था।

ग्रीस देश के इतिहासकार “एरियन” ने अपने पैरीपल्स नामक ग्रन्थ में लिखा है कि भारतीय वणिक अरब देश में उतरा करते थे। “स्ट्रेबो” नामक इतिहासकार ने लिखा है कि भारत ही कपास की भूमि है। कपास भारतीय वणिकों द्वारा मिश्र, सीरिया एवं अन्य देशों जैसे ईरान व इराक में पहुँची।

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