एक लोकतांत्रिक देश मे सत्ता एवम राजनीती के दृष्टि से दो पक्ष होते हैं एक सत्तापक्ष दूसरा विपक्ष । दोनो पक्ष सामान्यतः एक दूसरे के विरोधी ही होते हैं । एक पक्ष जो कार्य करता है दूसरा उसमें अपना विरोध ही दर्ज करता है । परन्तु एक विषय ऐसा भी है जहां सत्तापक्ष द्वारा किए गए कार्य का विपक्ष मौन रहकर समर्थन करता है क्या यह आश्चर्जनक नही । जी हाँ यदि आप देखेंगे कि जब कोई जलसा , सभा आदि किसी मौलाना आदि के द्वारा संचालित की जाती है और वहाँ पर काफिरो के लिए हिंसात्मक बाते कही जाती है तब सत्तापक्ष तो उन मौलानाओं पर संवैधानिक कार्यवाही करता ही नही है और इसके साथ ही साथ विपक्ष भी किसी कार्यवाही की मांग नही करता है । इसी तरह जब सनातन धर्म के सन्त व सन्यासी ,कटरपंथी मौलानाओं की जिहादी विचारधारा का विरोध कर मानवता व समाज के संरक्षण व आत्मरक्षा हेतु शास्त्रसम्मत विचार रखते है। तब सत्तापक्ष द्वारा ऐसे सन्तो पर कार्यवाही कर दी जाती है एवम यहाँ भी विपक्ष मौन रहकर अपनी सहमति दे देता है । इसका क्या अर्थ है , क्या वोट बैंक का लालच है , क्या भीड़तंत्र का भय है या कट्टरपंथियो के समक्ष दूसरे पक्ष का दमन ही लॉ एंड आर्डर को बनाए रखने का प्रमाण है । यह एक बहूत बड़ा प्रश्न है । इन दोनों ही उदहारण में उत्तर प्रदेश व असम के मुख्यमंत्री जी की सराहना करनी होगी जिन्होंने बिना किसी भय, लालच व डर के सत्य एवम सनातन धर्म की मानवता संरक्षण विचारधारा का सम्मान कर अराजक तत्वों के विरुद्ध सदैव उचित कार्यवाही को अंजाम दिया है ।
उत्तराखंड में संत सन्यासियों के साथ जो हुआ वो दुर्भाग्यपूर्ण है । यदि इसी तरह की कार्यवाही होती रही तो हिन्दू सन्त भी सत्य बातों को समाज के समक्ष नही रख पाएंगे । इसी क्रम में यति नरसिंघानन्द गिरी जी व अन्य साधुओं पर भी जो कार्यवाही हुई है । उस कार्यवाही को लोकतांत्रिक नही कहा जा सकता यदि किसी के व्यक्तव्य में कोई आपत्ति है भी, तो उन व्यक्तवियो की चर्चा न्यायालय में स्वतंत्र रूप से होनी चाहिए तत्पश्चात कोई कार्यवाही होनी चाहिए।