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जानिए कैसे छपते हैं नोट, कहां से आता है स्याही-पेपर

अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए पैसे सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं. रुपये के रूप में जिन नोट का हम इस्तेमाल करते हैं, क्या आप जानते हैं कि वह नोट कैसे बनते हैं इनकी छपाई कहां होती है किस प्रकार की स्याही का इस्तेमाल किया जाता है. आइए इसके बारे में विस्तार से जानते हैं.

भारतीय करंसी के नोट भारत सरकार और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया द्वारा छापे जाते हैं. यह सिर्फ सरकारी प्रिंटिंग प्रेस में ही छापे जाते हैं. देशभर में चार प्रिंटिंग प्रेस हैं. नासिक, देवास, मैसूर व सालबोनी (प. बंगाल) में नोट छपाई का काम किया जाता है.

कहां से आती है स्याही

नोट छापने की स्याही का आयात मुख्य रूप से स्विटजरलैंड की कंपनी SICPA से किया जाता है.  जिसमें  इंटैगलियो (Intaglio),  फ्लूरोसेंस ( Fluorescent) और ऑप्टिकल वेरिएबल इंक  (Optically variable ink (OVI) का इस्तेमाल  किया जाता है.  बता दें,
आयात होने वाली स्याही के कंपोजिशन में हर बार बदलाव करवाया जाता है, ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि कोई भी देश इसकी नकल न कर  सके.

कैसे काम करती है ये इंक

इंटैगलियो इंक: इसका इस्तेमाल नोट पर दिखने वाली महात्मा गांधी की तस्वीर छापने में किया जाता है.

फ्लूरोसेंस इंक : नोट के नंबर पैनल की छपाई के लिए इस इंक का उपयोग किया जाता है.

ऑप्टिकल वेरिएबल इंक : नोट की नकल न हो पाए इसलिए इस इंक का इस्तेमाल होता है.

जानिए कैसे छपते हैं नोट, कहां से आता है स्याही-पेपर

कहां से पेपर आता है

भारत की भी एक पेपर मिल सिक्योरिटी पेपर मिल (होशंगाबाद) है. ये नोट और स्टांप के लिए पेपर बनाती है. हालांकि भारत के नोट में लगने वाला अधिकतर पेपर जर्मनी, जापान और यूके से आयात किया जाता है.

क्या है नोट का इतिहास

ब्रिटिश सरकार ने साल 1862 में पहला नोट छापा था, जो कि यूके की एक कंपनी द्वारा छापे जाते थे.

कैसे छपा था एक रुपये का नोट

युद्ध के चलते सरकार चांदी का सिक्का ढालने में असमर्थ हो गई और इस प्रकार 1917 में पहली बार एक रुपये का नोट लोगों के सामने आया. इसने उस चांदी के सिक्के का स्थान लिया.

जानिए कैसे छपते हैं नोट, कहां से आता है स्याही-पेपर

30 नवंबर 1917 को  एक रुपये का नोट सामने आया जिस पर ब्रिटेन के राजा जॉर्ज पंचम की तस्वीर छपी थी.

भारतीय रिजर्व बैंक की वेबसाइट के अनुसार इस नोट की छपाई को पहली बार 1926 में बंद किया गया क्योंकि इसकी लागत अधिक थी. इसके बाद इसे 1940 में फिर से छापना शुरू कर दिया गया जो 1994 तक  जारी रहा.

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