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एक रूपया व एक ईट

एक रूपया व एक ईट:- अग्र -वैश्य समाज की गौरव गाथा , भाग 27

कानन वन सा महक रहा है……

(रचयिता- शान्ति स्वरूप गुप्त)

कानन वन सा महक रहा है, अग्रोहा का पावन धाम। सुरम्य सुगन्धित फैल रही है, अग्रोहा में ललित ललाम।

भाँति-भाँति के फूल खिले है, अग्रोहा के उपवन में। निरख-निरख इनकी शोभा, उत्साह असीम है जन जन में।।

तरह-तरह की द्रुम-लतायें, शोभा देती उपवन में।
भाँति-भाँति के वृक्ष सुशोभित ,रहते इस कानन वन में।

कंगन-पायल- नुपुर ध्वनि यहाँ, रोज सवेरे बजती है। जब महिलायें प्रतिदिन आकर, मंगलाचारण करती है।

डाल-डाल पर फूल खिले हैं, फूल-फूल में है लाली। शुभ-सुगन्ध बिखरी है ऐसी, जैसे चन्दन की डाली।।

मेरा मन-मयूर नाच रहा है, तान सुनाये माली।
जल-तरंग बज रहा है ऐसा ,जैसे बजती थाली।

ऊँचे-ऊँचे मन्दिर में जब ,घण्टा ध्वनि बजती है।
ऐसा लगता है मानो तब, सरस्वती वीणा बजती है।

भवन भवन में साज सजे है, झाड़-फानूस मंडराते है
मटक-मटक कर मानों स्वयं, तारा-गण यहाँ आते है।

द्रुम-लतायें नर्तन करती है, तीव्र पवन के झोंकों से। पत्ते सर-सर बोल रहे हैं, पुलक पवन के झोकों से।।

कल-कल निनाद करता रहता, सुरम्य सरोवर आँगन में।
झर-झर झर-झर झरना बहता, इसके सुन्दर प्रांगण में।

महानिशीथ की चंचल किरणें, जब इस पर इठलाती है। इसकी सुन्दर शोभा तब, जन-जन को ललचाती है।

ऐसा लगता है मानो तब, हाथों में हाथ लिये।
चाँद स्वयं आया धरती पर, मधुमास को साथ लिये।।

श्रान्त क्लान्त पथिक आता है, दूर-दूर के कोनों से।
आकर यहाँ मुक्ति पाता है, अपने कलुष झमेलों से।

कल्पना साकार लगती है, यह इन्द्र लोक से है न्यारी।
लाल-लाल यहाँ फूल, फूलों से भरी हुई है क्यारी ।गा-गाकर पक्षीगण यहाँ पर, लोल-किलोलें करते है। जिनकी कलरव की ध्वनि से, साज सवेरे साज सवेरे बजते है।

कुहुं-कुहुं कोयल की बोली, चिड़ियों की ची ची आवाज । मोरों की है म्याऊँ म्याऊँ यहाँ, बजा रही है सुन्दर साज।।

शुभ्र-श्वेत ऊपर-नीचे पंख वाले यहाँ हंस तैर-तैर कर, कलरव दिखाई देते हैं। करते रहते है।

मन रोमांचित सा हो जाता निरख-निरख शोभा प्यारी। स्वर्ग लोक सा उपवन लगता, शोभा-सुन्दर अति प्यारी ।।

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