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धर्म

धर्म चर्चा : एलोरा का कैलाश मंदिर जानते है वास्तु शास्त्री डॉ सुमित्रा जी से 

विश्व विरासत की सूची में शामिल है एलोरा का कैलाश मंदिर 

एलोरा के कैलाश मंदिर को जानने से पहले एलोरा के बारे में थोड़ी जानकारी हासिल करना जरूरी है। औरंगाबाद से लगभग १५ मील उत्तर-पश्चिम में स्थित है। दुनिया भर में यह अपने अद्भुत गुफा मंदिरों के लिए जाना जाता है, जो इसके पूर्व में लगभग एक मील की दूरी पर स्थित हैं। लंबे समय से घने जंगलों में छिपे हुए ये गुफा मंदिर, अब भारत के शीर्ष पर्यटन स्थलों में से एक हैं, जिन्हें न देखने की भूल आज शायद ही कोई पर्यटक करेगा। ये मंदिर यूनेस्को द्वारा आधिकारिक तौर पर विश्व विरासत सूची में शामिल किए गए हैं।

इन गुफाओं को सह्याद्री पहाड़ियों की खड़ी बसाल्ट चट्टानों से उकेरा गया था। ३४ शैल कर्तित संरचनाओं में से गुफा संख्या १ से १२ तक बौद्ध रिहायशी गुफाएं हैं, गुफा संख्या १३ से २९ तक ब्राह्मणवादी संरचनाएं हैं, और गुफा संख्या ३० से ३४ जैन गुफाएं हैं।

कैलाश मंदिर

गुफा संख्या १६ एलोरा का कैलाश मंदिर है, जो विश्व की सबसे बड़ी एकाश्म संरचना है।

कैलाश मंदिर ३०० फ़ुट लंबा और १७५ फ़ुट चौड़ा है, और इसे १०० फ़ुट से भी ऊँची एक सीधी ढाल से उकेरा गया है। कई अन्य प्राचीन शैल संरचनाओं के विपरीत यह मंदिर परिसर नीचे से ऊपर की बजाय ऊपर से नीचे तक बनाया गया था। यह काम एक छेनी और हथौड़े से किया गया था। इसके निर्माण में मचानों का इस्तेमाल नहीं किया गया था। खुदाई के आकार और डिज़ाइन की भव्यता के कारण यह गुफा भारतीय वास्तुकला की एक बेजोड़ कृति है।

मंदिर का इतिहास

मध्ययुगीन काल से ऐसे कई प्रामाणिक एवं अप्रामाणिक साहित्यिक साक्ष्य मिलते हैं, जिनके अनुसार इस शैल मंदिर को मणिकेश्वर गुफा मंदिर कहा जाता है, क्योंकि इसे एलापुर साम्राज्य की एक रानी, मणिकवती द्वारा बनवाया गया था।

एक कहावत की मानें, तो अलाजपुरा (वर्तमान महाराष्ट्र के अमरावती ज़िले का आधुनिक एलीचपुर) के एक राजा, पिछले जन्म में किए गए पापों के कारण एक असाध्य बीमारी से पीड़ित थे। एक बार राजा शिकार पर महिसमाला (एलोरा के पास म्हाई-समाला) गए। राजा के साथ शिकार पर गई रानी ने भगवान घृष्णेश्वर की पूजा की और यह प्रतिज्ञा की कि यदि राजा की बीमारी ठीक हो गई, तो वह भगवान शिव के सम्मान में एक मंदिर बनवाएंगी। राजा ने महिसमाला के तालाब में स्नान किया जिसके बाद उनकी बीमारी ठीक हो गई। रानी बहुत खुश हुईं और उन्होंने मांग की कि राजा तुरंत मंदिर का निर्माण शुरू करें, ताकि वह अपनी मन्नत पूरी कर सकें।

रानी ने मंदिर के शिखर के दर्शन होने तक उपवास रखने का निर्णय लिया। राजा मान गए, लेकिन इतने कम समय में मंदिर को पूरा करने के लिए कोई भी वास्तुकार तैयार नहीं हुआ। औरंगाबाद के एक स्थानीय पैठण, कोकसा ने यह चुनौती स्वीकार की और राजा को वचन दिया कि रानी एक सप्ताह में शिखर को देख सकेंगी। कोकसा ने अपने साथियों के साथ मिलकर, शैल मंदिर को तराशना शुरू किया ताकि एक सप्ताह के भीतर, वह शिखर की नक्काशी पूरी कर सकें और शाही जोड़े को उनकी व्यथा से मुक्त कर सकें। रानी के सम्मान में मंदिर का नाम मणिकेश्वर रखा गया और राजा ने एक शहर, एलापुर (आधुनिक एलोरा) का निर्माण किया। ८ वीं शताब्दी ईस्वी में राष्ट्रकूट शासकों ने प्रारंभिक पश्चिमी चालुक्यों को अपदस्थ कर दिया और दक्कन की सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया। राष्ट्रकूट राजवंश के अभिलेखों में कैलाश मंदिर के निर्माण के लिए राष्ट्रकूट सम्राट कृष्ण प्रथम (७५७ -७२ ईस्वी) का नाम मिलता है। वास्तव में, मंदिर का नाम मूल रूप से राष्ट्रकूट राजा, कृष्णेश्वर के नाम पर रखा गया था, लेकिन अब इसे कैलाश मंदिर कहा जाता है। हालाँकि, कुछ शिक्षाविदों का मानना है कि एलोरा के कैलाश मंदिर और स्थापत्य रूपों की अन्य शैल नक्काशियों को किसी एक राजा द्वारा बनवाया नहीं जा सकता था। इनमें एक सदी से भी अधिक समय तक कई राजाओं के अधीन काम जारी रहा होगा।

वास्तु शिल्प का अजूबा है कैलाश मंदिर 

विद्वानों के अनुसार, कैलाश मंदिर के निर्माण में एक पहाड़ी से तीन विशाल खाइयों का समकोण उत्खनन किया गया था, जो उसके आधार तक लंबवत रूप से काटी गई थीं। इस प्रक्रिया में मंदिर के प्रांगण के आकार को रेखांकित किया गया। प्रांगण के बीच २०० फ़ुट लंबी, १०० फुट चौड़ी और शीर्ष पर १०० फ़ुट ऊंची एक बड़ी चट्टान का “द्वीप” जैसा निर्माण किया गया।

एक स्थापत्य गणना के अनुसार, इन खाइयों को खोदकर पंद्रह से बीस लाख घन फ़ुट चट्टानों को हटाया गया था। चूंकि एक गहरी खाई से पत्थरों को उठाना लगभग असंभव था, इसलिए विद्वानों का अनुमान है कि मूर्तिकारों ने चट्टान को ऊपर से नीचे तक एक छेनी से तराशा होगा ताकि मंदिर के आसपास के क्षेत्रों से हटाए गए पत्थर कार्यदलों की सहायता से पहाड़ के नीचे लुढ़काए जा सकें।

यह भी दावा किया जाता है कि वास्तुकारों के पास पहले से ही एक योजना और एक कार्यशील प्रतिदर्श था। पट्टाडकल के विरुपाक्ष मंदिर और कैलाश मंदिर के बीच असाधारण समानता के कारण यह माना जाता है कि दोनों ही मंदिरों की कारीगरी उन्हीं कारीगरों ने की होगी। इस प्रारंभिक चालुक्य मंदिर ने भले ही एक प्रेरणा का काम किया हो, लेकिन यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि कैलाश मंदिर उसके आकार से लगभग दोगुना है।

मंदिर के निर्माण के दौरान हटाए गए कई टन पत्थर कहां गए, यह अब तक एक पहेली ही है। बची हुई चट्टानों के कहीं फेंके जाने का भी हमें कोई सबूत नहीं मिलता। चट्टानें कहाँ गईं, इस बारे में बात करने के लिए हमारे पास अब कोई भरोसेमंद स्रोत मौजूद नहीं है।

मंदिर और उसकी वास्तुकला 

प्रवेश द्वार पर दो मंज़िला गोपुरम स्थित है। प्रवेश द्वार के किनारों पर शैव और वैष्णवों द्वारा पूजे जाने वाले देवताओं की मूर्तियाँ हैं। प्रवेश द्वार से दो भीतरी आँगन दिखाई देते हैं, जिनमें से प्रत्येक के किनारे स्तंभित तोरण पथों से घिरे हुए हैं।

उत्तर और दक्षिण में प्रत्येक प्रांगण में एक विशाल, एकल चट्टान है, जिसमें एक आदमकद हाथी को उकेरा गया है। राष्ट्रकूट राजाओं को अपनी हाथी-सेना के साथ कई युद्ध जीतने के लिए जाना जाता था, जिसने हाथियों को उनके पसंदीदा जानवरों में से एक बना दिया। मंदिर में हाथियों की मूर्तियाँ राष्ट्रकूट राजाओं की शक्ति और समृद्धि का चिन्ह रहे होंगे।

कैलाश मंदिर के मुख्य द्वार में प्रवेश करने के बाद, कमल के फूल पर विराजमान गजलक्ष्मी की नक्काशीदार मूर्ति दिखाई देती है। पट्टिका (पैनल) पर चार हाथी हैं। शीर्ष पंक्ति में दो बड़े हाथियों को एक मटके से गजलक्ष्मी पर पानी डालते हुए दर्शाया गया है, जबकि नीचे की पंक्ति में दो छोटे हाथियों को कमलों वाले तालाब से मटके भरते हुए दर्शाया गया है। पट्टिका (पैनल) के पीछे, एक कहावत है, जिसके अनुसार भगवान शिव की ओर समर्पित किसी भी भक्त को समृद्धि का वरदान प्राप्त होगा।

मंदिर का शिखर (विमान) इसके नीचे के प्रांगण से 96 फ़ुट ऊंचा है और अष्टकोणीय है, जो द्रविड़ वास्तुकला की एक अनोखी विशेषता है। गर्भगृह के चारों ओर एक छोटा पूर्व कक्ष है, जो एक बड़े सभा-मंडप से जुड़ा हुआ है। इसके किनारों पर अर्ध-मंडप और सामने अग्र-मंडप है। नंदी-मंडप को गोपुर और मंदिर के अग्र-मंडप के बीच में उकेरा गया है, और तीनों भाग एक प्रकार के शैल-कर्तित पुल से जुड़े हुए हैं।

मुख्य मंदिर के अधिष्ठान में हाथियों की विशाल आदमकद मूर्तियों की एक पंक्ति है जो संरचना के पूरे भार को ढोते हुए प्रतीत होते हैं।

पहाड़ी के किनारे बने हुए परिक्रमा पथ पर पांच सहायक मंदिर पंक्तिबद्ध हैं, जो तीन नदी-देवियों, गंगा, जमुना और सरस्वती के सम्मान मे बनाए गए हैं।.

मंदिर की संरचना के अंदर 45 फ़ुट ऊंचे दो कीर्ति स्तंभ (विजय स्तंभ) भी हैं। कभी इन स्तंभों के शीर्ष भाग पर बना त्रिशूल अब नष्ट हो गया है।

मुख्य मंदिर के दोनों ओर ध्वज स्तंभ के पीछे वाली बाहरी दीवार पर महाभारत और रामायण के दृश्यों की दो दिलचस्प पट्टिकाएं हैं।

मंदिर का नाम

ऐसा कहा गया है कि कैलाश मंदिर पर मूल रूप से सफ़ेद रंग के प्लास्टर की एक मोटी परत थी जिससे ये पवित्र कैलाश पर्वत के समान दिखता था, इसलिए इसका यह नाम पड़ा। विद्वानों का दावा है कि पूरे मंदिर पर पुताई और प्लास्टर किया गया था। यही वजह है कि इसे रंग महल के रूप में भी जाना जाता था। पुराने भित्तिचित्रों के कुछ अंश अभी भी ऊपरी मंदिर के बरामदे की छत पर देखे जा सकते हैं। हालाँकि, यह अभी भी स्पष्ट नहीं है कि सतह का कितना हिस्सा सफ़ेद रंग में रंगा गया था।

एक अन्य दृष्टिकोण यह है कि कैलाश मंदिर शिव जी के निवास स्थान, कैलाश पर्वत का केवल एक रूपक भर है। यह भी कहा जाता है कि शायद मुख्य मंदिर के दक्षिणी हिस्से में रावण अनुग्रह मूर्ति की शानदार त्रि-आयामी प्रतिमा के कारण मंदिर को “कैलाश” नाम दिया गया था। मूर्ति में रावण को कई हाथों के साथ, कैलाश पर्वत को हिलाते हुए दर्शाया गया है, जहाँ शिव जी भी विराजमान हैं। शिव जी अपने पैर के केवल एक अँगूठे से ही रावण के अहंकार को रौंदते हुए दर्शाए गए हैं।

 

मंदिर के पीछे-कैलाश और ब्रह्मांड विज्ञान

 

अपने शानदार स्थापत्य तत्वों के अतिरिक्त, मंदिर परिसर में ब्रह्मांड-संबंधी कुछ अन्य पहलू भी हैं। कुछ विद्वानों के हिसाब से मंदिर परिसर के स्थापत्य डिज़ाइनों को सांसारिक से आध्यात्मिक, सांसारिक से आकाशीय और पदार्थ से मन की यात्रा के रूप में देखा जा सकता है।

गोपुरम, या प्रवेश द्वार, प्रवेश का मुख्य बिंदु है और भू लोक से स्वर्ग लोक तक के मार्ग का प्रतीक है। जैसे ही कोई इस मंडप से दूसरे मंडप में जाता है, इनका आकार, आयतन और स्थान छोटा और प्रकाश मंद होने लगता है, जो विकर्षणों के कम होने और एक व्यक्ति के दूसरे लोक के निकट जाने का प्रतीक है। कहा जाता है कि मुख्य मंदिर की ओर जाने वाली सीढ़ियों की चढ़ाई प्रतीकात्मक रूप से स्वर्ग की ओर बढ़ना दर्शाती है, और इसका लंबा, नुकीला शिखर स्वर्गीय क्षेत्र के एक विकल्प का कार्य करता है। एक-दूसरे को मज़बूत करते एवं एक-दूसरे के अस्तित्व को आपसी वैधता प्रदान करते विपरीत तत्वों का साथ में होना, एक अन्य सिद्धांत है जिसका, कुछ शिक्षाविदों के हिसाब से, यह मंदिर परिसर एक उदाहरण है। इस परिसर पर शंकर के अद्वैत दर्शन के प्रभाव का भी अध्ययन किया गया है, जहाँ एक भगवान, मंदिर और भक्त को एक चट्टानी पहाड़ी में उकेरा गया है। यह ज्ञान और भक्ति का एक अद्वैतवादी सामंजस्य दर्शाता है।

आत्मन, मानव-आत्मा का मूलभूत घटक, व्यक्ति का सार या चेतन ऊर्जा, को अपने आप में स्वतंत्र और पूर्ण माना जाता है, जबकि यह ब्रह्मांड की भव्य योजना ब्रह्म का भी एक घटक है जो एक अपरिवर्तनीय सार्वभौमिक आत्मा या चेतना के रूप में ब्रह्मांड की सभी चीज़ों का आधार है। इसी तरह, कैलाश मंदिर के तत्व अपने आप में पूर्ण प्रतीत होते हैं और एक दूसरे से इतने सहज तरीके से जुड़े हुए हैं कि वे एक ही परिसर के जान पड़ते हैं। इसलिए, कैलाश मंदिर की संपूर्णता ब्रह्म और ब्रह्मांड का प्रतीक है, जबकि इसके अलग-अलग हिस्से आत्मा के प्रतीक हैं।

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