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अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद लीडरशिप को लेकर अनबन ?

अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद लीडरशिप को लेकर अनबन ?

काबुल. अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद अब खबर है कि लड़ाकों के इस समूह की लीडरशिप को लेकर अनबन के दावे किए जा रहे हैं. तालिबान के कब्जे के बाद भी मौलवी हैबतुल्ला अखुंदज़ादा कहीं नज़र नहीं आ रहे हैं. तालिबान ने कहा, वह कंधार में अन्य नेताओं के साथ बैठक कर रहे हैं, लेकिन इस बैठक से जुड़ी एक सालों पुरानी तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है.

कई विशेषज्ञों का मानना है कि अखुंदजादा का अब तक सामने ना आना इस बात के संकेत हैं कि काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद सत्ता का संघर्ष तेज हो गया है. बीते महीने काउंसिल की एक बैठक के बाद तालिबान ने घोषणा की थी कि वह देश पर शासन करने के लिए एक नई अंतरिम परिषद का गठन कर रहा है. नई लीडरशिप में दक्षिणी अफगानिस्तान का कब्जा है. इसमें से अधिकतर वह लोग हैं जो तालिबान की पहली सरकार में अपनी सेवा दे चुके हैं.

तालिबान की जीत का अगुआ तथाकथित ‘पूर्वी तालिबान’ था. यह जिहादी सरदार सिराजुद्दीन हक्कानी का नेटवर्क है जिसके तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के साथ दशकों पुराने संबंध हैं. TTP पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम के साथ-साथ अल कायदा और इस्लामिक स्टेट में एक्टिव है.

‘पूर्वी तालिबान’ के नेताओं में सिराजुद्दीन हक्कानी के भाई अनस हक्कानी और उनके चाचा खलीलुर रहमान हक्कानी और तालिबान के अंतरिम रक्षा मंत्री अब्दुल कयूम जाकिर हेलमंद के परिवार से हैं. दोनों साल 2008 में रिहा होने से पहले ग्वांतानामो बे और पुल-ए चरखी जेल में थे. उन्होंने तालिबान की पहली सरकार में डिप्टी आर्मी कमांडर, नॉर्थ फ्रंट कमांडर और रक्षा मंत्री के रूप में सेवाएं दीं.

अंतरिम आंतरिक मंत्री इब्राहिम सदर जाति से पश्तून है और तालिबान के सबसे महत्वपूर्ण युद्धक्षेत्र कमांडरों में से एक काबुल हवाई अड्डे और तालिबान की वायु सेना के प्रमुख के रूप की जिम्मेदारी संभाली. कंधार में पैदा हुए गुल आगा इशाकजई, मुल्ला मोहम्मद उमर के सबसे करीबी वित्तीय सलाहकारों में से एक थे और उन्होंने 9/11 के बाद तालिबान को फिर से खड़ा करने के लिए संसाधन इकट्ठा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

काबुल के नए गवर्नर, मुहम्मद शिरीन अखुंद और शहर के अंतरिम मेयर हमदुल्ला नोमानी भी दक्षिणी अफगानिस्तान से हैं. ये भी तालिबान की पहली सरकार के शीर्ष लोगों में से एक हैं. तालिबान के बीच यह तनाव साल 2016 का है जब हैबतुल्लाह ने तालिबान फोर्स का हक्कानी और मुल्ला उमर के बेटे, मुल्ला मुहम्मद युकुब के बीच बंटवारा किया.

मई 2017 की एक रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों में कहा गया कि यह विभाजन, ‘आदिवासी प्रकृति का था. नूरजई जनजाति ने कथित तौर पर तालिबान आंदोलन के भीतर अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए कई फील्ड कमांडर पदों पर कब्जा कर लिया था.’ 1970 के दशक की शुरुआत में पाकिस्तान की खुफिया इकाई ISI की मदद से सरदार सिराजुद्दीन हक्कानी नेटवर्क ने अफगानिस्तान और पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम में जिहादी आंदोलन की नींव रखने में मदद की.

स्कॉलर डॉन रस्लर और वाहिद ब्राउन की एक किताब के अनुसार हक्कानी नेटवर्क ने खुद को अरब जिहादियों के साथ जोड़ा जो बाद में अल कायदा के तौर पर बढ़े. हालांकि 9/11 के बाद हक्कानी नेटवर्क तेजी से अहम किरदार हो गया. वह एक ओर उसने तालिबान को आर्थिक तौर पर मजबूत किया तो वहीं लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मुहम्मद, तहरीक-ए-तालिबान जैसे पाकिस्तान-केंद्रित समूह, हक्कानी नेटवर्क के मातहत हैं.

साल 2016 में स्कॉलर एंटोनियो गुइस्टोजी ने पाया कि हक्कानी ने असलम फारूकी की अगुआई वाले इस्लामिक स्टेट के गुटों को भी समर्थन दिया. असलम एक जिहाद कमांडर है जिसके बारे में माना जाता है कि उसने केरल से भारतीय नागरिकों को अफगानिस्तान के अंदर आत्मघाती हमले करने के लिए ट्रेनिंग दी और तैनात किया.

जन्म से कश्मीरी एजाज़ अहंगेर फारूकी के मातहत काम करता था. पर भारत की खुफिया एजेंसियों में कुछ लोगों को संदेह है कि उसे ISI ने इस्लामिक स्टेट में शामिल होने के लिए कहा है. जिहाजी एजाज पहले तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान और अल कायदा दोनों के साथ काम कर चुका है. इससे पहले, कर्नाटक निवासी मुहम्मद शफी अरमार के बारे में भी माना जाता है कि उसने इस्लामिक स्टेट के साथ उसके अमीर हाफिज सईद खान की कमांड में काम किया.

पाकिस्तान स्थित पेशावर के करीब अखोरा खट्टक में हक्कानियों के दार-उल-उलम मदरसे द्वारा पोषित, व्यापक जिहादी आंदोलन के साथ संबंधों का यह जटिल जाल और नए लड़ाकों के प्रवाह ने इसे सबसे खतरनाक तालिबान की अहम सैन्य इकाई बनाने में मदद की. ऐसे में अब सवाल उठता है कि आदिवासी प्रभाव की कमी के कारण क्या हक्कानी अब काबुल में सत्ता के उचित हिस्से की मांग करने के लिए हिंसा करेंगे?

यह भयानक खेल अभी खत्म नहीं हुआ…

इस्लामिक स्टेट के तत्वों के साथ हक्कानी के लंबे समय से संबंध के चलते ऐसी आशंकाएं जाहिर की जा सकती हैं. ‘दक्षिणी तालिबान’ के अंदर, गुइस्टोजी ने लिखा है कि काबुल पर हुए हालिया हमले में हक्कानी का हाथ था. यह नई सरकार के प्रति उनकी नाराजगी का संकेत था. ताकि भविष्य में उन्हें कमजोर ना आंका जए.

उन्होंने लिखा है- कि अगर उनकी मांगे पूरी नहीं हुई तो ‘पूर्वी तालिबान’, “आईएसकेपी में शामिल होने’ की धमकी दे सकता है. वहीं दक्षिणी लोगों का मानना है कि दक्षिणी तालिबान असली है. तालिबान को वास्तव में पूरे हालात को नियंत्रित करने के लिए कुछ राजनेताओं की जरूरत होगी.’ हालांकि दोहा में अमेरिका से तालिबान नेताओं से समझौते के पीछे ISI का बड़ा हाथ माना जा रहा है लेकिन वह यह भी जानता है कि वह तालिबान को अपने सरपस्त (पाकिस्तान) को छोड़कर अपने हित साधने से नहीं रोक सकता.

ISI ने अब्दुल गनी बरादर को साल 2010 से 2018 तक दोहा में तालिबान को पाकिस्तान में अपनी कैद में रखा. इसके पीछे उसका डर था कि वह अमेरिका से सौदे में कटौती की वजह ना बन जाए. अब ISI तालिबान को अपनी शर्तों पर नचाने के लिए ISI को एक खतरे के टूल की तरह इस्तेमाल कर सकता है. 9/11 के बाद शुरू हुए लंबे युद्ध पर से पर्दा भले ही गिर गया हो लेकिन इतना तो तय है: यह भयानक खेल अभी खत्म नहीं हुआ है.

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