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आज कोरियाई युद्ध के प्रकोप की 70 वीं वर्षगांठ पर यह बोले पीएम मोदी

कोरियाई युद्ध के प्रकोप की 70 वीं वर्षगांठ पर यह बोले पीएम मोदी

1904-1905 में हुए  रूस-जापान युद्ध  के बाद जापान द्वारा कब्जा किए जाने के पहले प्रायद्वीप पर कोरियाई साम्राज्य का शासन था। सन् 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद यह सोवियत संघ और अमेरिका के कब्जे वाले क्षेत्रों में बांटा दिया गया।उत्तर कोरिया ने संयुक्त राष्ट्र संघ की पर्यवेक्षण में सन् 1948 में दक्षिण में हुए चुनाव में भाग लेने से इंकार कर दिया।जिसके परिणामस्वरूप दो कब्जे वाले क्षेत्रों में अलग कोरियाई सरकारों का गठन हुआ।उत्तरी कोरिया में कोरियाई कम्युनिस्टों के नेतृत्व में   कोरियाई लोक जनवादी गणराज्यकी सरकार बनी।तथा दक्षिण भाग में अनेक पार्टियों की कोरियई गणराज्य की लोकतांत्रिक सरकार का गठन किया गया जिसका नेतृत्व सिंगमन री कर रहा था। री कम्युनिस्ट विरोधी था तथा वह कम्युनिज्म के फैलाव को रोकने के लिए च्यांग-काई शेक के साथ गठबंधन करना चाहता था । उत्तर और दक्षिण कोरिया दोनों ही पूरे प्रायद्वीप पर संप्रभुता का दावा किया,जिसकी परिणति सन् 1950 में कोरियाई युद्ध के रूप में हुई।सन् 1953 में हुए युद्धविराम के बाद लड़ाई तो खत्म हो गई,लेकिन दोनों देश अभी भी आधिकारिक रूप से युद्धरत हैं।

कारण

द्वितीय विश्वयुद्ध  के अंतिम दिनों में मित्र-राष्ट्रों में यह तय हुआ कि जापानी आत्म-समर्पण के बाद सोवियत सेना उत्तरी कोरिया के 38 वें अक्षांश तक तथा संयुक्त राष्ट्र संघ की सेना इस लाइन के दक्षिण भाग की निगरानी करेगी। दोनों शक्तियों ने “अन्तिम कोरियाई प्रजातांत्रिक सरकार” की स्थापना के लिए संयुक्त आयोग की स्थापना की। किन्तु 25 जून, 1950 को उत्तरी कोरिया ने दक्षिण कोरिया पर आक्रमण कर दिया। इसी दिन सुरक्षा परिषद में सोवियत अनुपस्थिति का फायदा उठाते हुए अमरीका ने अन्य सदस्यों से उत्तरी कोरिया को आक्रमणकारी घोषित करवा दिया। सुरक्षा परिषद ने यह सिफारिश की संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य कोरियाई गणराज्य को आवश्यक सहायता प्रदान करे जिससे वह सशस्त्र आक्रमण का मुकाबला कर सके तथा उस क्षेत्र में शांति और सुरक्षा स्थापित की जा सके। पहली बार 7 जुलाई, 1950 को अमरीकी जनरल मैकार्थर की कमान में संयुक्त राष्ट्र संघ के झण्डे के नीचे संयुक्त कमान का निर्माण किया गया। सोल में कम्युनिस्ट समर्थकों के दमन के बाद उत्तर कोरिया के तत्कालीन नेता किम उल-सुंग ने दक्षिण कोरिया के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया था।किम उल-सुंग उत्तर कोरिया के वर्तमान शासक किम उल-जोंग के दादा थे।

लेकिन सोवियत संघ ने बाद में सुरक्षा परिषद् की कार्रवाई में भाग लेना आरंभ कर दिया और कोरिया में संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्रवाई रोकने के लिए “वीटो” का प्रयोग कर दिया। इसके परिणामस्वरूप 3 नवम्बर, 1950 को महासभा ने “शांति के लिए एकता प्रस्ताव” पास कर अतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा का उत्तरदायित्व स्वयं ले लिया। फलस्वरूप अमरीकी और चीनी सेनाएँ कोरियाई मामले को लेकर उलझ पड़ी।युद्ध शुरू होने के कुछ महीनों के बाद चीन को ये आशंका सताने लगी कि अमरीकी फौज उसकी सरहदों की तरफ रुख कर सकती है।इसलिए उसने तय किया कि इस लड़ाई में वो अपने साथी उत्तर कोरिया का बचाव करेगा। चीनी सैनिकों के मोर्चा खोलने के बाद अमरीकी सैनिकों को ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा। उसके हताहत होने वाले सैनिकों की संख्या बढ़ गई। हालांकि चीनी सैनिकों के पास उम्दा हथियार नहीं थे लेकिन उनकी तादाद बहुत बड़ी थी। उत्तर कोरिया को चीन और सोवियत संघ से मिलने वाली सप्लाई लाइन को काटना बहुत जरूरी हो गया था।”

इसके बाद जनरल डगलस मैकअर्थर ने ‘धरती को जला देने वाली अपनी युद्ध नीति’ पर अमल करने का फैसला किया।इसी लम्हे से उत्तर कोरिया के शहरों और गांवों के ऊपर से रोज़ाना अमरीकी बम वर्षक विमान बी-29 और बी-52 मंडराने लगे। इन लड़ाकू विमानों पर जानलेवा नापलम लोड था. नापलम एक तरह का ज्वलनशील तरल पदार्थ होता है जिसका इस्तेमाल युद्ध में किया जाता है।इससे जनरल डगलस मैकअर्थर की बहुत बदनामी भी हुई लेकिन ये हमले रुके नहीं। अमरीकी कार्रवाई के बाद जल्द ही उत्तर कोरिया के शहर और गांव मलबे में बदलने लगे।

कोरियाई युद्ध में भारत की भूमिका

भारत के अनथक प्रयास के बावजूद दोनों पक्षों को जून1953 में साथ लाना संभव हो पाया।भारतीय राजदूत और कोरिया संबंधी संयुक्तराष्ट्र संघ के कमीशन के अध्यक्ष के.पी.एस.मेनन(कृष्ण मेनन)द्वारा तैयार फार्मूले के अनुसार युद्धबंदी पर सहमति हुई और लड़ाई में बंदी बनाए गए सैनिकों की अदला-बदली का फार्मूला तैयार हो पाया।जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ और स्टालिन की मृत्यु के बाद सोवियत गुट ने स्वीकार किया।भारतीय जनरल थिमैय्या की अध्यक्षता में निष्पक्ष देशों का रिहाई कमिशन बनाया गया।उनकी देखरेख में में तैयार भारतीय “देखरेख दल” ने सैनिकों की रिहाई का कठिन कार्य अपने हाथों में लिया।

कोरियाई युद्ध गुटनिरपेक्षता में भारत की आस्था और शांति में उसके विश्वास की भी परीक्षा साबित हुई जिसमें वह ख्ररा उतरा।भारत द्वारा उत्तर कोरिया को हमलावर बताए जाने के कारण उसे चीन और सोवियत विरोध का सामना करना पड़ा। युद्ध में अमरीकी हस्तक्षेप से इनकार करने तथा चीन को हमलावार नहीं मानने के कारण भारत को अमरीका के गुस्से का सामना करना पड़। 1950में चीन ने तिब्बत पर हमला करके उसे बिना किसी विशेष प्रयत्न के अपने में मिला लिया।और भारत को चुप रहना पड़ा।

अमरीकी नीति के विरोध में सोवियत संघ सुरक्षा परिषद से बाहर निकल गया।ऐसे हालात में भारत ने चीन को सुरक्षा परिषद में सीट देने पर खास जोर दिया।भारत में उत्पन्न अकाल जैसे हालात से निपटने के लिए अमरीका से अनाज मंगाने की सख्त जरूरत थी ।परंतु इससे कोरिया में अमरीकी भूमिका संबंधी अपनी दृष्ट्रि प्रभावित नहीं होने दी।सफलता न मिलने पर भी भारत लगातार कोशिश करता रहा और अंतत:भारत की स्थिति सही साबित हुई:दोनों पक्षों ने उसी सीमा को स्वीकार किया जिसे वे बदलना चाह रहे थे। अंतः भारत  तथा कुछ अन्य शांतिप्रिय राष्ट्रों की पहल के कारण 27 जुलाई, 1953 में दोनों पक्षों के बीच युद्ध विराम-सन्धि हुई। इस प्रकार कोरिया युद्ध को संयुक्त राष्ट्र संघ रोकने में सफल हुआ। वैसे उत्तरी तथा दक्षिणी कोरिया में आपसी तनाव जारी रहा।

जनहानि

अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के अनुसार वहाँ इस युद्ध के कारण 33,686 सैनिकों और 2,830 आम नागरिकों की मौत हो गई। 1 नवम्बर 1950 को चीन का सामना करने पर सैनिकों के मौत की संख्या 8,516 बढ़ गई।

किम जैसे शोधकर्ता बताते हैं कि तीन सालों की लड़ाई के दौरान उत्तर कोरिया पर 635,000 टन बम गिराये गए। उत्तर कोरिया के अपने सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस युद्ध में 5000 स्कूल, 1000 हॉस्पिटल और छह लाख घर तहस-नहस हो गए थे। युद्ध के बाद जारी किए गए एक सोवियत दस्तावेज़ के मुताबिक़ बम हमले में 282,000 लोग मारे गए थे। एक अंतरराष्ट्रीय आयोग ने भी उत्तर कोरिया की राजधानी का दौरा किया था जिसने अपनी रिपोर्ट में कहा कि बम हमले से शायद ही कोई इमारत अछूता रह पाया हो। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी के ड्रेसडेन जैसे शहरों के साथ हुआ था,वैसे हालात उत्तर कोरियाई लोगों ने अपनी सड़कों पर धुएं का गुबार देखा। दक्षिण कोरिया ने बताया कि इस लड़ाई से उसके 3,73,599 आम नागरिक और 1,37,899 सैनिक मारे गए। पश्चिम स्रोतो के अनुसार इससे चार लाख लोगों कि मौत और 4,86,000 लोग घायल हुए हैं। केपीए के अनुसार 2,15,000 लोगों की मौत और 3,03,000 लोग घायल हुए थे

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