साहित्य उपवन
जीवन का खूबसूरत दौर
जब खोली आँख मैंने, खुद को पिंजरे में
बंद पाया था वो नीला गगन ही था,
जो मुझे सबसे ज्यादा लुभाया था उस चील को उड़ता देख,
मेरे मन में भी उत्साह आया था कि
थी लाख कोशिश मैंने भी,
पर खुद को बेबस पाया था हाँ चाहती थी मैं भी
उड़ना,पर परिस्थिति ने मोहताज बनाया था क्या कर
दिया था मैंने ऐसा,जो मेरे भाग्य ही ऐसा संकट आया था मांगी
थी एक दुआ मैंने भी, कि छु
लुं उस आसमान को था हौसला मुझमे भी ,
एक दिन तो छुऊन्गी उस आकाश कोपर हालातो के
आगे कहाँ मेरी चलनी थी बन्द कर पिंजरे में मुझे ,
इस दुनिया ने अपनी करनी थी आखिर कब
तक मेरे होसलों को दफ़्न
कर सकते थे वो एक दिन तो होना था ऐसा जब
मेरा वक़्त आना था वो काली अँधेरी रात में जो भयंकर तूफान
आया था टूट पिंजरा वो गया हवा का ऐसा झोंका आया था हो गया था
सब इधर उधर मेरे मन में भी भूचाल आया था
जो थी पिंजरे में बंद अब तक ,तो कहाँ पँखो पर
भरोसा आया था जो गिरी मैं अचानक से ,
कुछ अलग सा जोश आया था दुनिया पर तो
थी मैं निर्भर ,पर आज खुद को आजमाया था
जो उडी मैं, फिर ऐसे उडी कि, कोई न रोक पाया
था आखिर चाहा था उस आसमान को ,
तो हारकर रब ने भी उससे मिलाया था ।
हर्षिता अग्रवाल